समय बीत रहा है, सिमरन न छोड़ो, हर सांस करते रहो।
हमारी किस्मत में जो लिखा है वह होकर ही रहता है पर अगर कुछ अच्छे कर्म, सुमिरन भजन और मालिक की दया हो तो मालिक कुछ होने वाली घटनाओं को "सूली से सूल" कर देते हैं।
गुरु हमें यही समझाते हैं कि हमें मालिक की मौज में रहना चाहिये।
कभी कभी हमारी आत्मा को, जो भविष्य में होने वाला है, उसका संकेत मिल जाता है। पर यह इतना कम आंशिक रुप में होता है कि हम समझ नहीं पाते।
जग में दो शक्तियां काम करती है।
एक दयाल (परमात्मा) की और दूसरी काल (शैतान) की।
हर वो कार्य, हर वो क्षण जो हमें मालिक की याद दिलाये, सुमिरन भजन में ले जाये, वह मलिक की ओर से ही दया हो रही है।
अगर हम इससे दूर जा रहे हैं तो हम खुद ही मालिक की दया को ठुकरा रहे हैं।
काल नहीं चाहता कि उसकी एक भी आत्मा मालिक की भक्ति करके यह संसार, भवसागर छोड़कर जाये।
इसिलिये वह हमारे सामने ऐसे भ्रम लाकर खड़े करता है कि हम सुमिरन भजन से दूर हो और बाहर ही बाहर भटकते रहें ताकि "सच" की प्राप्ती ना कर सकें।
भाई हम पर तो मालिक की दया चौबीसों घंटे बरस रही है, अब अगर हम ही सुमिरन पर ना बैठें तो यूं समझो हम अब भी काल के चक्कर में ही है।
काल ने ही हमें भ्रमा रखा है ताकि हम "सच" की प्राप्ति से वंचित रहें।
भविष्य में कभी हमारे साथ गलत ना हो यह सोचकर इस डर से सुमिरन में न बैठे, यही काल चाहता है।
जो होना है वह अटल है हमें अपने "डर" को बाहर निकालना है।
"डर" एक कल्पना है जिसे हम खुद ही रचते हैं,
खुद ही बनाते हैं। असल में वो है ही नहीं माया का ही एक रुप है।
चाहे किसी भी हाल में हो हमे सुमिरन नहीं छोड़ना।
सुबह समय नहीं मिले तो दोपहर को, दोपहर नहीं मिले तो शाम को और शाम को न मिले तो रात को बैठो
कभी नागा नहीं करना चाहिये।
गुरु हमें यही समझाते हैं कि हमें मालिक की मौज में रहना चाहिये।
कभी कभी हमारी आत्मा को, जो भविष्य में होने वाला है, उसका संकेत मिल जाता है। पर यह इतना कम आंशिक रुप में होता है कि हम समझ नहीं पाते।
जग में दो शक्तियां काम करती है।
एक दयाल (परमात्मा) की और दूसरी काल (शैतान) की।
हर वो कार्य, हर वो क्षण जो हमें मालिक की याद दिलाये, सुमिरन भजन में ले जाये, वह मलिक की ओर से ही दया हो रही है।
अगर हम इससे दूर जा रहे हैं तो हम खुद ही मालिक की दया को ठुकरा रहे हैं।
काल नहीं चाहता कि उसकी एक भी आत्मा मालिक की भक्ति करके यह संसार, भवसागर छोड़कर जाये।
इसिलिये वह हमारे सामने ऐसे भ्रम लाकर खड़े करता है कि हम सुमिरन भजन से दूर हो और बाहर ही बाहर भटकते रहें ताकि "सच" की प्राप्ती ना कर सकें।
भाई हम पर तो मालिक की दया चौबीसों घंटे बरस रही है, अब अगर हम ही सुमिरन पर ना बैठें तो यूं समझो हम अब भी काल के चक्कर में ही है।
काल ने ही हमें भ्रमा रखा है ताकि हम "सच" की प्राप्ति से वंचित रहें।
भविष्य में कभी हमारे साथ गलत ना हो यह सोचकर इस डर से सुमिरन में न बैठे, यही काल चाहता है।
जो होना है वह अटल है हमें अपने "डर" को बाहर निकालना है।
"डर" एक कल्पना है जिसे हम खुद ही रचते हैं,
खुद ही बनाते हैं। असल में वो है ही नहीं माया का ही एक रुप है।
चाहे किसी भी हाल में हो हमे सुमिरन नहीं छोड़ना।
सुबह समय नहीं मिले तो दोपहर को, दोपहर नहीं मिले तो शाम को और शाम को न मिले तो रात को बैठो
कभी नागा नहीं करना चाहिये।
~PSD~