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संत बड़े दयालु होते हैं।

कबीर साहब कहते हैं की संत धोबी जैसे काम करते हैं। जैसे धोबी के पास कितने कपड़े आते हैं। मैकेनिक के, हलवाई के और भी ना जाने किनके-किनके आते हैं। लेकिन वो किसी से उनकी जात नही पूछता क्योकि उसका काम सिर्फ कपड़े की मैल निकल कर कपडे को  साफ़ करना है।
कितना भी मैला कपड़ा क्यों ना हो वो उसे लेने से कभी इंकार नही करता क्योकि वो जनता है कि मैल कोई और चीज है और इसके अंदर की सफेदी और चीज है। वो जानता है कि जितना भी मैला कपड़ा हो, उसमे मेहनत कर उसकी सफेदी आ जायेगी।
ठीक उसी प्रकार संत महात्मा बड़े दयालु होते हैं। उनकी शरण में कोई कितना भी बड़ा पापी या अपराधी चला जाये चाहे, किसी कौम या किसी भी मज़हब का क्यों ना हो। संत उनसे उनकी जात पात नही पूछते।
जीव कितना भी दुनियावी मैल से क्यों ना लिबड़ा हो, संत उन्हें धिक्कारते नही, संत उनकी मैल नही, बल्कि उनके अंदर मौजूद उस सफेदी को देखते है जो मैल उतरने के बाद जाहिर होनी है।
ऐसे सच्चे रहमदिल संत की शरण में जाने वाले मैले से मैले जीव को संत उनकी मैल उतरवा कर उन्हें उनकी असली सफेदी में ला देते है। मतलब उन्हें अपने जैसा बना लेते हैं।

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