संत भीखा साहिब जी
भीखा साहब बड़े सिद्ध और अनुभवी संत थे। चमत्कारों और दिखावे में विश्वास नहीं करते थे। वह तो इतना जानते थे कि जो राम का भजन नहीं करता है, उसे कालरूप समझना चाहिए
भीखा साहब का जन्म आजमगढ़ ज़िला, उत्तर प्रदेश के खानपुर बोहना नामक ग्राम में हुआ था। उनको बचपन से ही गांव में आने वाले साधु-संत आकर्षित किया करते थे। धीरे-धीरे उनके मन में वैराग्य बढ़ने लगा। मात्र बारह साल की अवस्था में ही उनके विवाह की तैयारी की जाने लगी थी। विवाह के रंग- बिरंगे कपड़े पहनकर भीखा समझ गए कि उनके पैरों में गृहस्थ-धर्म की बेड़ियां डाली जा रही हैं। बस फिर क्या था, एक दिन वह चुपचाप घर से निकल भागे।
भीखा गुरु की खोज में घूमता रहा काशी में और खाली हाथ लौटना पडा उसे। काशी और काबा, गिरनार और शिखर जी,सब खाली पड़े है। हां, कभी सदियों पूर्व कोई दीये वहां जले थे। उन दीयों के कारण तीर्थ बन गये थे। लेकिन दीये तो कब के बुझ गये। बुझ ही नहीं गये, दीयों का तो नाम-निशान न रहा।
खोजते खोजें एक छोटे से गांव में, जिसका नाम भी तुमने न सुना होगा। नाम था गांव का ‘’भुरकुड़ा’’ एक छोटा सा गांव,होगा कोई दस- बीस घरों का। नाम ही बता रहा है। भुरकुड़ा। वहां गुलाल मिले। और गुलाल को देखा, कि न भीखा ने ही केवल पहचाना,गुलाल ने भी पहचाना।
इस बारह वर्ष के बच्चे को एकदम उठाकर अपने पास बिठा लिया अपनी गद्दी पर। पुराने शिष्यों में तो ईर्ष्या फैल गयी। लोग तो चौकन्ने हो गये कि बात क्या है। किसी को कभी अपने पास गद्दी पर नहीं बिठाया। बड़ी आवभगत की—बारह वर्ष के बच्चे की। क्योंकि एक और दुनिया है जहां, इस उम्र से कुछ भी नहीं नाप जाता। जहां ह्रदय तोले जाते है; जहां आत्माएं परखी जाती है। इसकी ऐसा सम्मान दिया जैसे कोई सम्राट हो। भीखा गुलाल के हो गये। गुलाल भीखा का हो गया। फिर भीखा न छोड़ा ही नहीं। भुरकुटा गांव, वहीं पर अंत समय तक रहे, और वहीं गुरु चरणों में मरे। वहीं जीवन भर भुरकुटा और गुलाल के हो कर रह गये। एक पल एक दिन के लिए भी नहीं छोड़ा गुलाल का साथ। रात दिन वहीं चरण मंदिर बन गये, वही तीर्थ हो गया, भीखा का।
और फिर ऐसी आग जली…वह जो राम की प्रीति लगी तो ऐसी आग जली। कि लगा बारह साल में ही चारों पन बीत गये। जैसे में बूढ़ा हो गया। जैसे बीत गयीं चारों अवस्थाएं—चारों आश्रम, एक साथ बारह साल में। निपट लागी चटपटी और ऐसी लगी आग और ऐसी जली अभीप्सा, मानों चरिउ पन गये बीती। मैं अचानक बारह वर्ष में वृद्ध हो गया: देख लिया देखने योग्य। सब आसार था। मौत सामने खड़ी हो गयी। बारह वर्ष की उम्र में। मौत सामने खड़ी हो गयी। जब कि लोग सपने सँजोता है, जो टूटे गे आज नहीं कल। जब कि लोग बड़ी योजनाएं और कल्पनाएं बनाते है। जो कि सब धूल-धूसरित हो जाएंगा। जागों, और जानने का एक ही उपाय है। गुरु परताप साध की संगति, भीखा के ये बचन सीधे-सादे,सुगम,पर चिनगारी की भांति है। और एक चिनगारी सारे जंगल में आग लगा दे —एक चिनगारी का इतना बल है। ह्रदय को खोलों, इस चिनगारी को अपने भीतर ले लो। शिष्य वही है जो चिनगारी को फूल की तरह अपने भीतर ले ले। चिनगारी जलाएगी वह सब जो गलत है। वह सब जो व्यर्थ है, वह सब जो कूड़ा करकट हे, चिनगारी जलाएगी, भभकाएगी, वह जो नहीं होना चाहिए। और उस सबको निखारती है जो होना चाहिए। जो इस अग्नि से गुजरता है, एक दिन कुंदन होकर प्रकट होकर होता है, शुद्ध होकर प्रकट होता है।
"भीखा भूखा को नहीं ,सबकी गठरी लाल,
गिरह खोल न जानसी ताते भये कंगाल"
भीखा साहब जी कहते हैं कि सबके पल्ले में ‘नाम’ रुपी लाल बंधा पड़ा है पर उसमे जड़ -चेतन की ग्रंथि (गाँठ) बंधी पड़ी है । जब तक यह गाँठ न खुले , अर्थात पिंड से ऊपर आकर नाम का अनुभव न मिले , हम भूखे के भूखे रह जाते हैं । दौलत के होते हुए भी हम भूखे हैं परन्तु ‘नाम’ को पाकर हम सुखी हो जाते हैं । ‘नाम’ सब में परिपूर्ण है , फिर भी हम दुखी हैं ? वे कहते हैं कि हमने उसे प्रकट नहीं किया है ।
भीखा बात अगम की ।
कहन सुनन की नाए।
कहे सो जाने ना।
जाने सो कहे ना।
भीखा साहब का जन्म आजमगढ़ ज़िला, उत्तर प्रदेश के खानपुर बोहना नामक ग्राम में हुआ था। उनको बचपन से ही गांव में आने वाले साधु-संत आकर्षित किया करते थे। धीरे-धीरे उनके मन में वैराग्य बढ़ने लगा। मात्र बारह साल की अवस्था में ही उनके विवाह की तैयारी की जाने लगी थी। विवाह के रंग- बिरंगे कपड़े पहनकर भीखा समझ गए कि उनके पैरों में गृहस्थ-धर्म की बेड़ियां डाली जा रही हैं। बस फिर क्या था, एक दिन वह चुपचाप घर से निकल भागे।
भीखा गुरु की खोज में घूमता रहा काशी में और खाली हाथ लौटना पडा उसे। काशी और काबा, गिरनार और शिखर जी,सब खाली पड़े है। हां, कभी सदियों पूर्व कोई दीये वहां जले थे। उन दीयों के कारण तीर्थ बन गये थे। लेकिन दीये तो कब के बुझ गये। बुझ ही नहीं गये, दीयों का तो नाम-निशान न रहा।
खोजते खोजें एक छोटे से गांव में, जिसका नाम भी तुमने न सुना होगा। नाम था गांव का ‘’भुरकुड़ा’’ एक छोटा सा गांव,होगा कोई दस- बीस घरों का। नाम ही बता रहा है। भुरकुड़ा। वहां गुलाल मिले। और गुलाल को देखा, कि न भीखा ने ही केवल पहचाना,गुलाल ने भी पहचाना।
इस बारह वर्ष के बच्चे को एकदम उठाकर अपने पास बिठा लिया अपनी गद्दी पर। पुराने शिष्यों में तो ईर्ष्या फैल गयी। लोग तो चौकन्ने हो गये कि बात क्या है। किसी को कभी अपने पास गद्दी पर नहीं बिठाया। बड़ी आवभगत की—बारह वर्ष के बच्चे की। क्योंकि एक और दुनिया है जहां, इस उम्र से कुछ भी नहीं नाप जाता। जहां ह्रदय तोले जाते है; जहां आत्माएं परखी जाती है। इसकी ऐसा सम्मान दिया जैसे कोई सम्राट हो। भीखा गुलाल के हो गये। गुलाल भीखा का हो गया। फिर भीखा न छोड़ा ही नहीं। भुरकुटा गांव, वहीं पर अंत समय तक रहे, और वहीं गुरु चरणों में मरे। वहीं जीवन भर भुरकुटा और गुलाल के हो कर रह गये। एक पल एक दिन के लिए भी नहीं छोड़ा गुलाल का साथ। रात दिन वहीं चरण मंदिर बन गये, वही तीर्थ हो गया, भीखा का।
और फिर ऐसी आग जली…वह जो राम की प्रीति लगी तो ऐसी आग जली। कि लगा बारह साल में ही चारों पन बीत गये। जैसे में बूढ़ा हो गया। जैसे बीत गयीं चारों अवस्थाएं—चारों आश्रम, एक साथ बारह साल में। निपट लागी चटपटी और ऐसी लगी आग और ऐसी जली अभीप्सा, मानों चरिउ पन गये बीती। मैं अचानक बारह वर्ष में वृद्ध हो गया: देख लिया देखने योग्य। सब आसार था। मौत सामने खड़ी हो गयी। बारह वर्ष की उम्र में। मौत सामने खड़ी हो गयी। जब कि लोग सपने सँजोता है, जो टूटे गे आज नहीं कल। जब कि लोग बड़ी योजनाएं और कल्पनाएं बनाते है। जो कि सब धूल-धूसरित हो जाएंगा। जागों, और जानने का एक ही उपाय है। गुरु परताप साध की संगति, भीखा के ये बचन सीधे-सादे,सुगम,पर चिनगारी की भांति है। और एक चिनगारी सारे जंगल में आग लगा दे —एक चिनगारी का इतना बल है। ह्रदय को खोलों, इस चिनगारी को अपने भीतर ले लो। शिष्य वही है जो चिनगारी को फूल की तरह अपने भीतर ले ले। चिनगारी जलाएगी वह सब जो गलत है। वह सब जो व्यर्थ है, वह सब जो कूड़ा करकट हे, चिनगारी जलाएगी, भभकाएगी, वह जो नहीं होना चाहिए। और उस सबको निखारती है जो होना चाहिए। जो इस अग्नि से गुजरता है, एक दिन कुंदन होकर प्रकट होकर होता है, शुद्ध होकर प्रकट होता है।
"भीखा भूखा को नहीं ,सबकी गठरी लाल,
गिरह खोल न जानसी ताते भये कंगाल"
भीखा साहब जी कहते हैं कि सबके पल्ले में ‘नाम’ रुपी लाल बंधा पड़ा है पर उसमे जड़ -चेतन की ग्रंथि (गाँठ) बंधी पड़ी है । जब तक यह गाँठ न खुले , अर्थात पिंड से ऊपर आकर नाम का अनुभव न मिले , हम भूखे के भूखे रह जाते हैं । दौलत के होते हुए भी हम भूखे हैं परन्तु ‘नाम’ को पाकर हम सुखी हो जाते हैं । ‘नाम’ सब में परिपूर्ण है , फिर भी हम दुखी हैं ? वे कहते हैं कि हमने उसे प्रकट नहीं किया है ।
भीखा बात अगम की ।
कहन सुनन की नाए।
कहे सो जाने ना।
जाने सो कहे ना।
~PSD~