गुरु से प्रेम - बाबा फरीद
पाकिस्तान में बाबा फरीद नाम के एक फकीर थे। उनकी गुरुभक्ति अनन्य थी। गुरुजी की सेवा में ही उनका सारा समय व्यतीत होता था। एक बार बाबा फरीद को उनके गुरु ख्वाजा बहाउद्दीन ने उनको किसी खास काम के लिए मुलतान भेजा।
वहाँ उन दिनों में शाह शम्स तबरेज के शिष्यों ने अपने गुरु के नाम का एक दरवाजा बनाया था और घोषणा की थी कि आज इस दरवाजे से जो गुजरेगा वह जरूर स्वर्ग में जाएगा। हजारों फकीर और गृहस्थ आज इस दरवाजे से गुजर रहे थे। नश्वर शरीर का त्याग होने के बाद स्वर्ग में स्थान मिलेगा ऐसी सबको आशा थी।
फरीद को भी उनके मित्र फकीरों ने दरवाजे से गुजरने के लिए खूब समझाया, परन्तु फरीद तो उनको जैसे-तैसे समझा-पटाकर अपना काम पूरा करके, बिना दरवाजे से गुजरे ही अपने गुरुदेव के चरणों में पहुँच गए।
गुरुदेव ने उनसे मुलतान के समाचार पूछे और कोई विशेष घटना हो तो बताने के लिए कहा। फरीद ने शम्सजी के दरवाजे का वर्णन करके सारी हकीकत सुना दी।
गुरुदेव बोले- 'मैं भी वहाँ होता तो उस पवित्र दरवाजे से गुजरता। तुम कितने भाग्यशाली हो फरीद कि तुमको उस पवित्र दरवाजे से गुजरने का अवसर प्राप्त हुआ!'
गुरू की लीला बड़ी अजीबोगरीब होती है। शिष्य को पता नहीं चलता और वे उसकी कसौटी कर लेते हैं। फरीद तो सत्शिष्य थे। उनको अपने गुरूदेव के प्रति अनन्य भक्ति थी। गुरुदेव के शब्द सुनकर वे बोले- 'कृपानाथ! मैं तो उस दरवाजे से नहीं गुजरा। मैं तो केवल आपके दरवाजे से ही गुजरूँगा। एक बार मैंने आपकी शरण ली है तो अब और किसी की शरण मुझे नहीं जाना है।'
यह सुनकर ख्वाजा बहाउद्दीन की आँखों में प्रेम उमड़ आया। शिष्य की दृढ़ श्रद्धा और अनन्य शरणागति देखकर उसे उन्होंने छाती से लगा लिया। उनके हृदय की गहराई से आशीर्वादात्मक शब्द निकल पड़े- 'फरीद! शम्सतबरेज का दरवाजा तो केवल एक ही दिन खुला था, परन्तु तुम्हारा दरवाजा तो ऐसा खुलेगा कि उसमें से जो हर गुरुवार को गुजरेगा वह सीधा स्वर्ग में जाएगा।'
वहाँ उन दिनों में शाह शम्स तबरेज के शिष्यों ने अपने गुरु के नाम का एक दरवाजा बनाया था और घोषणा की थी कि आज इस दरवाजे से जो गुजरेगा वह जरूर स्वर्ग में जाएगा। हजारों फकीर और गृहस्थ आज इस दरवाजे से गुजर रहे थे। नश्वर शरीर का त्याग होने के बाद स्वर्ग में स्थान मिलेगा ऐसी सबको आशा थी।
फरीद को भी उनके मित्र फकीरों ने दरवाजे से गुजरने के लिए खूब समझाया, परन्तु फरीद तो उनको जैसे-तैसे समझा-पटाकर अपना काम पूरा करके, बिना दरवाजे से गुजरे ही अपने गुरुदेव के चरणों में पहुँच गए।
गुरुदेव ने उनसे मुलतान के समाचार पूछे और कोई विशेष घटना हो तो बताने के लिए कहा। फरीद ने शम्सजी के दरवाजे का वर्णन करके सारी हकीकत सुना दी।
गुरुदेव बोले- 'मैं भी वहाँ होता तो उस पवित्र दरवाजे से गुजरता। तुम कितने भाग्यशाली हो फरीद कि तुमको उस पवित्र दरवाजे से गुजरने का अवसर प्राप्त हुआ!'
गुरू की लीला बड़ी अजीबोगरीब होती है। शिष्य को पता नहीं चलता और वे उसकी कसौटी कर लेते हैं। फरीद तो सत्शिष्य थे। उनको अपने गुरूदेव के प्रति अनन्य भक्ति थी। गुरुदेव के शब्द सुनकर वे बोले- 'कृपानाथ! मैं तो उस दरवाजे से नहीं गुजरा। मैं तो केवल आपके दरवाजे से ही गुजरूँगा। एक बार मैंने आपकी शरण ली है तो अब और किसी की शरण मुझे नहीं जाना है।'
यह सुनकर ख्वाजा बहाउद्दीन की आँखों में प्रेम उमड़ आया। शिष्य की दृढ़ श्रद्धा और अनन्य शरणागति देखकर उसे उन्होंने छाती से लगा लिया। उनके हृदय की गहराई से आशीर्वादात्मक शब्द निकल पड़े- 'फरीद! शम्सतबरेज का दरवाजा तो केवल एक ही दिन खुला था, परन्तु तुम्हारा दरवाजा तो ऐसा खुलेगा कि उसमें से जो हर गुरुवार को गुजरेगा वह सीधा स्वर्ग में जाएगा।'
~PSD~