तेरा भाणा मीठा लागे
श्री गुरु अर्जुन देव जी को शहीदों का सरताज कहा जाता है। आप सिख धर्म के पहले शहीद थे ! चतुर्थ गुरु रामदास जी के सबसे छोटे पुत्र अर्जुन देव जी,बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे. 17 वैशाख 1620 विक्रमी अर्थात 2 मई 1563 को गोइंदवाल साहिब में जन्मे गुरु जी को महज 18 वर्ष 4 माह की अल्पायु में गुरु गद्दी सौंप दी गयी । अशरीरी होने से पहले लगभग 25 वर्षों तक उन्होंने समाज की ‘रुढियों’ और ‘कट्टरपंथ’ को प्रेम और सौहाद्र कड़ी चुनौती दी
दिल्ली उन दिनों मध्य एशियाई मुगलों के अधीन थी,बर्बर बाबर की चौथी पीढी का शासक ‘जहाँगीर’ गुरु अर्जुन देव की बढ़ती लोकप्रियता से बुरी तरह ‘जला’ हुआ था.अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए- जहाँगीरी’ में उसने अपनी कुंठा साफ़-साफ़ व्यक्त की है । जहाँगीर अपने ‘पद’ के अपमान और दो कौमों की परस्पर सहिष्णुता को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था.
जहाँगीर गुरु जी को रोकने के लिए,हर कुछ करने के लिए तैयार था.यह वह स्वयं स्वीकारता है । दुर्भाग्य से उसके साथ षड़यंत्र रचने वालों में पूर्ववर्ती ‘जयचंदों’ की भाँती एक व्यवसायी ‘चंदू शाह’ भी शामिल हो गया । गुरुजी को साजिश के तहत् कारागार में डाल कर घोर यातनाएँ दी गयीं.इतनी की कल्पना मात्र से आपकी रूह काँप उठेगी.चार रोज तक भूँखा रखने के पश्चात् गुरु जी को थार के तपते मरुस्थल में,रक्त-तप्त तवे में बैठाया गया । और इस्लाम कबूलने को बाध्य किया गया,जिसे गुरु जी ने मुस्कुराते हुए ठुकरा दिया । जालिमों के लिए लोहें का गर्म तवा पर्याप्त न था,उसी रेगिस्तान में खौलते पानी से गुरु जी के निर्मल तन को जलाया गया परन्तु गुरु जी के मुंह से “उफ्फ” भी ना निकली । उस समय भी वे उन आतताइयों के लिए शुभभावना रखते हुए कह रहे थे
“तेरा कियां मीठा लगे.हरि नाम पदारथु नानक”
यासा के अनुसार किसी व्यक्ति का रक्त धरती पर गिराए बिना उसे यातनाएं देकर शहीद कर दिया जाता है। गुरु जी के शीश पर गर्म-गर्म रेत डाली गई। जब गुरु जी का शरीर अग्नि के कारण बुरी तरह से जल गया तो आप जी को ठंडे पानी वाले रावी दरिया में नहाने के लिए भेजा गया जहां गुरु जी का पावन शरीर रावी में आलोप हो गया। गुरु अर्जुन देव जी ने लोगों को विनम्र रहने का संदेश दिया। आप विनम्रता के पुंज थे। कभी भी आपने किसी को दुर्वचन नहीं बोले।
गुरु अर्जुन देव जी का संगत को एक और बड़ा संदेश था कि परमेश्वर की रजा में राजी रहना। जब आपको जहांगीर के आदेश पर अग्नि से तप रही तवी पर बिठा दिया, उस समय भी आप परमेश्वर का शुक्राना कर रहे थे !
दिल्ली उन दिनों मध्य एशियाई मुगलों के अधीन थी,बर्बर बाबर की चौथी पीढी का शासक ‘जहाँगीर’ गुरु अर्जुन देव की बढ़ती लोकप्रियता से बुरी तरह ‘जला’ हुआ था.अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए- जहाँगीरी’ में उसने अपनी कुंठा साफ़-साफ़ व्यक्त की है । जहाँगीर अपने ‘पद’ के अपमान और दो कौमों की परस्पर सहिष्णुता को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था.
जहाँगीर गुरु जी को रोकने के लिए,हर कुछ करने के लिए तैयार था.यह वह स्वयं स्वीकारता है । दुर्भाग्य से उसके साथ षड़यंत्र रचने वालों में पूर्ववर्ती ‘जयचंदों’ की भाँती एक व्यवसायी ‘चंदू शाह’ भी शामिल हो गया । गुरुजी को साजिश के तहत् कारागार में डाल कर घोर यातनाएँ दी गयीं.इतनी की कल्पना मात्र से आपकी रूह काँप उठेगी.चार रोज तक भूँखा रखने के पश्चात् गुरु जी को थार के तपते मरुस्थल में,रक्त-तप्त तवे में बैठाया गया । और इस्लाम कबूलने को बाध्य किया गया,जिसे गुरु जी ने मुस्कुराते हुए ठुकरा दिया । जालिमों के लिए लोहें का गर्म तवा पर्याप्त न था,उसी रेगिस्तान में खौलते पानी से गुरु जी के निर्मल तन को जलाया गया परन्तु गुरु जी के मुंह से “उफ्फ” भी ना निकली । उस समय भी वे उन आतताइयों के लिए शुभभावना रखते हुए कह रहे थे
“तेरा कियां मीठा लगे.हरि नाम पदारथु नानक”
यासा के अनुसार किसी व्यक्ति का रक्त धरती पर गिराए बिना उसे यातनाएं देकर शहीद कर दिया जाता है। गुरु जी के शीश पर गर्म-गर्म रेत डाली गई। जब गुरु जी का शरीर अग्नि के कारण बुरी तरह से जल गया तो आप जी को ठंडे पानी वाले रावी दरिया में नहाने के लिए भेजा गया जहां गुरु जी का पावन शरीर रावी में आलोप हो गया। गुरु अर्जुन देव जी ने लोगों को विनम्र रहने का संदेश दिया। आप विनम्रता के पुंज थे। कभी भी आपने किसी को दुर्वचन नहीं बोले।
गुरु अर्जुन देव जी का संगत को एक और बड़ा संदेश था कि परमेश्वर की रजा में राजी रहना। जब आपको जहांगीर के आदेश पर अग्नि से तप रही तवी पर बिठा दिया, उस समय भी आप परमेश्वर का शुक्राना कर रहे थे !